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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

भारतरत्न द्वय, मालवीय जी और अटल जी

भारतरत्न द्वय, मालवीय जी और अटल जी 
जिस धरती ने आज के दिन जन्मे दो दो भारत रत्न, फिर क्यों भूल इसे किसी और रंग रंगायें मेरा वतन। 
भारतीयता के कट्टर पक्षधर को समर्पित हो यह दिन, वो उत्सव हम क्या जो मनाएं जो हो तुम दोनों बिन।। 
 दोनों को शत शत नमन -तिलक, संपादक युगदर्पण
हमारे सम्मानीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्म दिन के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं बधाई ।
(जन्म: २५ दिसंबर, १९२४) भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। 

भारतीय शिक्षा के समर्थ शिल्पी महामना मालवीय

madan moham malviya
भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय
आधुनिक भारतीय शिक्षा के समर्थ शिल्पी महामना मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय उनके जीवन काल का मात्र एक % से भी कम काम है। इस वर्ष केंद्र सरकार ने महामना को भारत रत्न देने की घोषणा करके, देश को गौरवान्वित किया है। आइए, हम भी ऐसे शतावधानी क्षमतावान के विविध आयामों पर अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ शब्दांजलि देने का प्रयास करते हैं। उनके जीवन को समझने के लिए दो आयामों की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है। पहली तो एक समर्थ गुरु और दूसरा भरपूर समय। आजकल लोगों के पास सब-कुछ तो है किन्तु समय की भरपूर कमी है। 
पहली संसद से ही बिखरी कालजयी परिसर की आभा -महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने शैक्षणिक संप्रभुता के रूप में जिस काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की, उसकी भव्य उपस्थिति आज वैश्विक पटल पर देखने को मिलती है। विश्व का शायद ही कोई कोना हो, जहां बहिविवि से निकली पौध ने सुगंध न बिखेरी हो। इसका शुभारम्भ आजाद भारत के बाद अस्तित्व में आई संसद में भी सशक्त रूप में देखने को मिला था। 1952 की पहली संसद में 167 प्रतिनिधि ऐसे थे, जिनका सम्बंध बहिविवि से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से था। इससे भी पहले की यदि बात करें, तो आजाद भारत की नियमावली तैयार करने के लिए जिस संविधान सभा की समिति का गठन किया गया था, उसमें भी 89 सदस्यों का जुड़ाव बहिविवि से था। यह नए भारत के आलेख पर महामना की बगिया का सशक्त हस्ताक्षर था। स्वाधीनता के बाद से लेकर अब तक की राष्ट्रीय व राज्यों की राजनीति में भी बहिविवि से निकले विद्यार्थी सफल राजनीतिज्ञ और प्रशासकों के रूप में भूमिका निभाते रहे हैं।
जिस धरती ने आज के दिन जन्मे दो दो भारत रत्न, फिर क्यों न इसका उत्सव मिलके मनाये मेरा वतन।
बगिया के इन पुष्पों ने बिखेरी सुगंध – काशी नरेश महाराज डा. विभूति नारायण सिंह, उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री जेबी पटनायक, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल, शरत चंद्र सिन्हा पूर्व मुख्यमंत्री आसाम, वर्तमान रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा, उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, बीपी कोइराला पूर्व प्रधानमंत्री नेपाल, केएन गोविंदाचार्य, भारत रत्न सीएनआर राव समेत अनगिनत रत्न, अनगिन गणमान्य।
स्मरण करो बहिविवि की कहानी
महामना का सपना, ‘कल’ हो अपना – ज्ञान-विज्ञान हो या धर्म-अध्यात्म, कला-इतिहास हो या चिकित्सा- अभियांत्रिकी। हर क्षेत्र में आने वाला कल भारत के युवाओं का हो। इसके लिए अंग्रेज शासकों के हस्तक्षेप से परे अपना एक विश्वविद्यालय हो। परतंत्र भारत में ऐसी कल्पना पं. मदन मोहन मालवीय जैसा कोई तपस्वी ही देख सकता था। उसे उड़ान दे सकता था, सहेज-सरेख सकता था। भविष्य दृष्टा मालवीय जी ने न केवल सपना देखा बल्कि अवरोधों का हिमालय तोड़ कर अपने इस स्वप्न को वर्तमान में उतारा। आने वाले भविष्य के लिए सजाया और संवारा। हाथ खाली, पैरों के नीचे कोई भूमी नहीं। सामने ‘शेख चिल्ली का ख्वाब’ करार दे कर खिल्ली उड़ाने वालों की कतार। पग-पग पर बाधा खड़ी करने वाली विदेशी सरकार। संकल्प से विचलित करने को अड़े-खड़े अपनों का पराये सा व्यवहार, परन्तु कोई भी बाधा आन के धनी, इस भगीरथ की राह रोक नहीं पाई। आज विश्व में अपनी यश-कीर्ति की पताका फहरा रहा काशी हिंदू विश्वविद्यालय का अजर-अमर अस्तित्व इसका जीवंत साक्षी है।
हिंदू विश्वविद्यालय को पहली ईंट से प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचाने वाली मालवीय जी की स्वप्न यात्रा का श्री गणेश हुआ 1904 में काशी के मिंट हाउस में, तत्कालीन काशी नरेश महाराज प्रभुनारायण सिंह की अध्यक्षता में आहूत उस ऐतिहासिक बैठक में; जिसमें महामना ने अपने मन में घुमड़ते संकल्प को बैठक के एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव के रूप में पहली बार सार्वजनिक किया। काशी में एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय की स्थापना के इस संकल्प पर पहले तो कोई सहसा विश्वास ही नहीं कर सका, किन्तु संदेहों के बाद भी एक पवित्र भावना के रूप में सभी ने प्रस्ताव का एकमत से स्वागत किया।
अक्टूबर 1905 में महामना ने पूर्व प्रस्तावित काशी विश्वविद्यालय का एक विस्तृत विवरण छपवा कर देश के सभी विद्वानों, हिंदू नेताओं और गुणग्राही राजा-महाराजाओं के पास भेज दिया। उत्तर में मिली सराहनाओं और शुभेच्छाओं ने महामना के संकल्प को बड़ी ताकत दी। एक ऐसे विश्वविद्यालय की उनकी कल्पना को नए पंख मिले जिसमें उन्होंने शाम को एक रोटी के टुकड़े से भी प्रायः वंचित रह जाने वाले और नंगे पांव चलने वाले गरीब भारतीय नौजवान को भी स्नातक गाउन में सजे देखने का चित्र संजो रखा था। 31 दिसंबर 1905 में नगर के ‘टाउनहाल’ में एक बड़ी सभा का आयोजन हुआ। वीएन महाजनी की अध्यक्षता में हुई इस सभा में गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसी मान्य हस्तियां उपस्थित थीं। यहां भी मालवीय जी ने काशी विश्वविद्यालय की स्थापना का अपना प्रस्ताव रखा और पूरी सभा हर्षातिरेक से मानो नाच उठी। 1906 में प्रयाग में जगद्गुरु शंकराचार्य के सानिध्य में बैठी सनातन धर्म महासभा की सभा ने भी, एक स्वर से महामना के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया। यह बात और थी कि बहुत से लोग मालवीय जी के इस संकल्प को एक दरिद्र की कोरी कल्पना ठहरा कर, उनका उपहास उड़ाने से भी नहीं चूके। इन सबसे निस्पृह रहते हुए मालवीय जी अपने काम में जुटे रहे। 1907 मे विश्वविद्यालय के कच्चे रूपरेखा को एक सुस्पष्ट संशोधित ,प्रास्पेक्टस, के रूप में प्रकाशित करवा के वे पूरे देश, विशेषकर प्रबुद्धजनों की चर्चा के केंद्र में आ गए।
डा. एनी बेसेंट से मतैक्य – उन्हीं दिनों सुप्रसिद्ध सेंट्रल हिंदू कॉलेज की संस्थापना से शिक्षा क्षेत्र में विशिष्ट आभा मंडल प्राप्त कर चुकी डा. एनी बेसेंट भी अपने कॉलेज को ‘यूनिवर्सिटी ऑफ इंडिया‘ के नाम से विश्वविद्यालय का स्तर दिलाने के लिए प्रयासरत थीं। इसके निमित्त वे ब्रिटिश सम्राट को नियम से ‘रॉयल चार्टर’ भी भेज चुकी थीं। इधर महाराज दरभंगा रामेश्वर सिंह जी काशी में ही शारदा विद्यापीठ विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए रात दिन एक किये हुए थे। 1910 में भारत सरकार ने डा. बेसेंट का चार्टर भारतमंत्री के पास भेजा, जिसे उन्होंने स्पष्ट राय के लिए पुनः भारत सरकार को ही लौटा दिया। इस बीच एक घटना और हुई। 1909 में बनाये गए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव ने त्वरित आकार ले लिया। उसकी स्थापना को सरकार की स्वीकृति भी मिल गई। आपसी मतभेदों के चलते काशी में विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रथम पग अटके ही रह गये।
महामना और डा. बेसेंट की भेंट अप्रैल 1911 में प्रयाग में हुई। वहां बातचीत में दोनों को लगा कि प्रकारांतर से वे एक ही मिशन के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयासशील हैं। महामना की राय-बात से बेसेंट जी इतनी प्रभावित हुईं कि वे बिना कुछ सोचे सेंट्रल हिंदू कॉलेज को हिंदू यूनिवर्सिटी का रूप देने को तैयार हो गईं। उन्होंने सरकार से अपना आवेदन वापस लेने में भी तनिक देर न लगाई। देश में यह संदेश जाते भी देर न लगी कि महामना और बेसेंट जी एक साथ मिल कर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का अभियान चलाएंगे। काशी हिंदू विश्व विद्यालय की स्थापना यात्रा की सफलता का यह पहला पड़ाव था।
हिंदी को दिलाया सम्मान, देश में गूंजी राष्ट्रभाषा – आजादी के बाद भारत में जनभाषा हिंदी को वह स्थान नहीं मिल सका, जो अंग्रेजी शासन काल में भारत रत्न महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने दिलाया। उन्होंने अंग्रेजी शासन में अंग्रेज न्यायाधीश के समक्ष हिंदी का पक्ष अंग्रेजी भाषा में रखा। विषय था हिंदी को कार्यालयी व अदालती भाषा बनाने का। उनके प्रयास के पहले देश में कोई भी सरकारी पत्र हिंदी में नहीं लिखे जाते थे। वह मात्र अंग्रेजी में ही स्वीकार होते और उनपर कार्यवाही होती। अदालत व सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी किले को ढहाने के लिए भारत रत्न महामना ने 15 अप्रैल सन 1919 में इलाहाबाद के न्यायालय में हिंदी को कार्यालयी एवं अदालती भाषा बनाने के लिए जमकर बहस की। दक्षिण भारत के कुछ संस्थान प्रतिवर्ष 15 अप्रैल को प्रयोजनमूलक हिंदी दिवस मनाते हैं। उनका मानना है कि महामना ने हिंदी को रोजगार परक भाषा बनाया है। सरकारी कार्यालयों में हिंदी में पत्र लिखने पर लोगों के काम हो जाने लगे। इसके लिए हिंदी के जानकार बेरोजगारों को हिंदी टाइपिंग व इसके उत्तर से संबंधित पद का सृजन होने लगा। उनकी पहल के बाद ही कार्यालयों में हिंदी अधिकारी नियुक्त होने लगे। इस बहस की विशेष बात यह थी कि भारत रत्न महामना ने अदालत में श्वेत वस्त्र धारण किया था। उन्होंने अदालत की काली पोशाक पहनने से मना कर दिया था। उनकी बहस से अंग्रेजी न्यायाधीश बहुत प्रभावित हुआ और उसने देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को सरकारी कार्यालय एवं अदालत की भाषा के रूप में स्वीकृति दे दी। उनकी हिंदी के प्रति संवदेनशीलता और संघर्ष को पढ़ने से ज्ञात होता है कि आजादी के बाद हिंदी जस की तस पड़ी हुई है। उनके बाद कोई दूसरा महामना नहीं हुआ जो हिंदी को देश में बाध्यकारी भाषा बना दे।
धर्मांधों को दिया करारा जवाब – महामना यूं ही महान नहीं थे। उन्होंने हिंदुत्व की लंबी रेखा खींचते हुए मानवता का अद्वितीयउदहारण खड़ा किया था। महामना ने मानवता और शैक्षणिक संप्रभुता के लिए देश में कई आयाम स्थापित किए। इसी कड़ी में उन्होंने मंदिरों में दी जाने वाली पशुबलि को अपनी जीजिविषा से बंद कराया था। बनारस के दुर्गाकुंड स्थित दुर्गामंदिर में है। महामना मालवीय बहिविवि की स्थापना के बाद उसके विस्तार के लिए पूरे जिले का भ्रमण करते थे। जहां से सहयोग मिलता उसे ग्रहण कर लेते। इसी कड़ी में 40 के दशक में उन्होंने एक दिन दुर्गाकुंड स्थित दुर्गामंदिर में गए। वहां उन्होंने पशुबलि होते देखा। पशुबलि को देख वह अतिरुष्ट हुए और तत्काल मंदिर प्रांगण में ही आमरण अनशन पर बैठ गए। सदियों से चली आ रही इस परंपरा पर रोक लगाने की पहल शुरू की तो उन्हें स्थानीय भक्तों का भी व्यापक विरोध झेलना पड़ा। यहां तक लोग उनके प्राणों के भी प्यासे हो गए थे। इससे निश्चिन्त महामना पशुबलि पर रोक लगाने के लिए अड़े रहे। उन्हें मनाने के लिए काशी नरेश भी पहुंचे, किन्तु वह मानने को तैयार नहीं थे। अपनी मांग पर अडिग महामना ने पशुबलि पर पाबंदी लगाने को अटल थे। अंततः महामना के साहस की जीत हुई और वर्ष 1942-43 में दुर्गामंदिर में पशुबलि पर रोक लगा दी गई। इस पहल के बाद काशी स्थित मां कूष्मांडा देवी का दुर्गामंदिर धाम देश का पहला गैर पशुबलि वाला मंदिर बन गया। बाद में दुर्गामंदिर से प्रेरणा लेकर देश के अन्य देवी स्थानों पर होने वाली पशुबलि पर रोक लगा दी गई। इस आंदोलन की सबसे विशेषता यह थी कि महामना ने अपने देश की सरकार के समक्ष नहीं, बल्कि अंग्रेजी शासनकाल में पशुबलि पर रोक लगाने की मांग उठाई थी।
किसान वैज्ञानिक और कृषि विज्ञान – जब देश में खेती-किसानी बहुत दुर्गम काम था, लोग खेती के लिए सौ-सौ जुगत करते, किसान अंग्रेजों को लगान न दे पाने की दशा में उनके बूटों की मार से घायल होते, किसानबाध्य होकर उपजाऊ भूमी को गिरवी रखते और घरों में अनाज के लिए प्रतिदिन हाहाकार मचता, ऐसी विकट परिस्थिति में भारत रत्न महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने, खेती को देश के राजस्व का बड़ा अंश बताया। यही नहीं, उन्होंने कृषि को कोई सामान्य विधा नहीं, बल्कि विज्ञान की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि कृषि विज्ञान से जुड़े किसान कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि कृषि वैज्ञानिक हैं। कृषि को देश में बढ़त देने व व्यवस्था की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान महाविद्यालय की स्थापना सन 1932 में की। इसके बाद यह महा विद्यालय कृषि विज्ञान संस्थान में परिवर्तित कर दिया गया। यहां खेती को धार देने के लिए उसर भूमि पर भी लहलहाती फसल उगाने के प्रकल्प संपादित किए जाते हैं। कृषि विज्ञान महाविद्यालय की एकविशेषता यह भी है कि देश जब आजाद हुआ और भारत की कृषि नीति बनाने के लिए 50 से अधिक कृषि विशेषज्ञों ने अपने सुझाव दिए थे। यहां के कृषि वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए सुझावों पर ही देश की कृषि नीति तैयार हुई थी। बहिविवि के कृषि विज्ञान संस्थान का इस समय देश में ऊंचा स्थान है। यहां के वैज्ञानिक अब तक कई प्रकार के धान, गेहूं, जौ, चना आदि की विविध प्रजातियां तैयार कर चुके हैं। कम दिनों में अधिक तैयार होने वाली फसलें, कम पानी में उन्नत धान और जहां पानी न पहुंचे वहां संसाधन उपलब्ध कराने का भी काम संस्थान कर रहा है। इसके साथ ही इसी संस्थान के तहत ऐतिहासिक सौ एकड़ में गौशाला एवं डेयरी भी संचालित होती है। महामना ‘दूध पियो कसरत करो नित्य जपो हरिनाम’ संदेश देते थे। यह संस्थान उनकी इस संकल्पना को बहुत सीमा तक पूरा करता है। यहां आज भी समय- समय पर किसान मेले, उन्हें निःशुल्क बीज, कृषि के संसाधनउपलब्ध कराए जाते हैं।
सुर के सरताज महामना मना मालवीय जी- महामना मालवीय जी हर विषय पर सम्यक ज्ञान एवं अधिकार रखते थे। इस तथ्य से बहुत कम लोग हीपरिचित होंगे कि महा एकशीर्ष संगीत साधक भी थे। महामना पं0 मदन मोहन मालवीय जी के बारे में यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी कि उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हर उन विभागों की स्थापना की जिसके वह स्वयं जानकार थे। महामना मालवीय कुशल बैरिस्टर, कानूनविद, आयुर्विज्ञानी, कृषि विज्ञानी होने के साथ ही वह प्रवीण संगीतज्ञ भी थे। यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि वह एक कुशल शास्त्रीय गायक थे। वह अपनेआप में सर्व विद्या के प्रतिरूप थे। देवी सरस्वती महामना के मस्तिष्क में ही नहीं बल्कि उनके कंठ में भी निवास करती थीं। धारा प्रवाह व्याख्यान देने वाले महामना जी जब अपनी स्वरसाधना में रत होते थे, तो लोग उनके स्वरपाश में बंध जाते थे। अपने पिता कीभाँति मालवीय जी की रुचि गायन व वादन दोनों में थी। रागों के भी वे अच्छे पारखी थे। विद्यार्थी जीवन में सूर और मीरा के पदों के गायन में निपुणता के साथ, उन्होंने सितार के सुर भी साधे। यह बात और है कि पूरा जीवन राष्ट्र और समाज की सेवा में अर्पित करने के बाद ऐसे क्षण कम ही मिले, जब उन्हें गाने की कौन कहे, गुनगुनाने का भी अवसर मिला हो। पं0 राम नरेश त्रिपाठी ने अपने संस्मरण में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। इसमें सुल्तानपुर जिले के पापर गांव में महामना के एक संक्षिप्त प्रवास का वर्णन है। लिखा है कि खटिया पर लेटे एक ग्राम गीत गुनगुना रहे महामना उस समय चौंक कर उठ बैठे, जब उनके कान में गंवई गीत गा रही उस महिला का स्वर पहुंचा, जो भवाई के मेले में जा रही थी। महामना ने उनसे कहा कि यह तो शुद्ध मल्हार है। इसका यही राग है। पं0 त्रिपाठी ने इस प्रसंग को बहुत ही गंभीरता से शब्द मुक्ता में पिरोया है। उन्होंने लिखा कि मालवीय जी ने पूरे सुर में यह गीत सुनाया, जिसके बोल थे-धीरे बहु नदिया तैं धीरे बहु, संइयां मोरे उतरइहें पार… धीरे बहु नदिया…। महामना की संगीत के प्रति रुचि विज्ञान की भांति थी। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में संगीत एवं मंचकला संकाय को संचालित करने के लिए विश्वगुरु रवींद्र नाथ टैगोर को बुलाया था। विश्वगुरु ने उनके आग्रह को माना और संगीत एवं मंचकला संकाय का दायित्व निभाया।
सर्वांग सुंदर बीएचयू परिसर – सरस्वती के साधक महामना पं. मदन मोहन मालवीयजी ने ज्ञानयोग व कर्मयोग को भक्तियोग के साथ मिलाकर सर्वांगसुंदर सर्वविद्या की अनुसंधानशाला काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित की है। तीनों योगों को परिसर स्थित श्रीविश्वनाथ मंदिर एक करता है। अष्टमी के चंद्रमा के आकार में बने विश्वविद्यालय के मध्य में लगभग 52 एकड़ में मंदिर बनाने के पीछे महामना की व्यापक सोच थी। महामना ने अवधारणा रखी कि मंदिर की बायीं ओर केंद्रीय ग्रंथालय से आरंभ होकर उत्तर दिशा की ओर विभिन्न शिक्षा संबंधी विभाग हैं जो ज्ञान योग के प्रतीक हैं। दायीं ओर कृषि विज्ञान संस्थान से प्रारंभ होकर दक्षिण दिशा में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान व कृषि प्रक्षेत्र हैं, जो कर्म संबंधी विभाग हैं। कर्मयोग और ज्ञान योग के केंद्र में मंदिर भक्तियोग है। मंदिर के ठीक सामने ही केंद्रीय कार्यालय स्थापित किया गया। यहीं विश्वविद्यालय के कुलपति भी बैठते हैं। तीनों योग को नियंत्रित करने के लिए कुलपति को न्याय की प्रेरणा के लिए मंदिर की सकारात्मक ऊर्जा काम करेगी। महामना मालवीय जी योग कर्मसु कौशलमय़ के आधार पर ही विश्वविद्यालय बना रहे थे। महामना ने मंदिर की स्थापना के लिए तीन दिन का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम रखा। इसके लिए तपोनिधि कृष्णाश्रमजी को निमंत्रित किया। उन्हें लेने के लिए महामना स्वयं दिल्ली पहुंचे थे। शिलान्यास का भव्य कार्यक्रम आठ मार्च सन 1931 से शुरू हुआ। आठ, नौ व दस मार्च तक यज्ञादि अनुष्ठान हुए। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि यज्ञशाला के ऊपर महामना ने हमारे राष्ट्रीय ध्वज को फहराया था। इस अवसर पर कई अंग्रेज अधिकारियों को भी उन्होंने बुलाया था। शिलान्यास के बाद उन्होंने जोर का उद्घोष किया, धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। 
गंगाजल से भरी नहर महामना ने मंदिर के दोनों ओर अर्धचंद्राकार नहर बनाने की योजना भी बनाई। उन्होंने अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना को विश्वविद्यालय निर्माण के मुख्य इंजीनियर व सुपरिंटेंडेंट ज्वालाप्रसाद को बताई। योजना सुनकर पं. गंगाराम इतने खुश हर्षित हुए कि उन्होंने तुरंत जलकल स्थापित करने के लिए 20 हजार व नहर के लिए एक लाख रुपये दान देने का संकल्प लिया। नहर बनी, इसका उद्घाटन जनवरी 1937 में हुआ। नहर की विशिष्टता यह थी कि इसमें भरा जाने वाला पानी सामान्य नहीं था। मालवीय जी ने सीधे गंगाजी से पंपिंग सेट लगाकर गंगाजल भरवाते थे। वह इसी जल से परिसर में खेती करवाते थे। नहर में तैराकी प्रतियोगिता भी होती थी। स्नान के घाट बने थे। उनका मानना था कि गंगाजल से भरे इस नहर में प्रतिदिन विद्यार्थी स्नान करेंगे और बाबा का दर्शन करेंगे। उन्होंने यह व्यवस्था संस्कार सृजन के लिए की थी। अब इस नहर को पाटकर उद्यान बनाया गया है।
पत्रकारिता ने मकरंद तो गांधी व टैगोर ने बनाया महामना – महामना मालवीय के जीवन का एक-एक कदम व निर्णय ऐतिहासिक रहा है। अब उनके नाम को ही लें। उनके पत्रकारिता जीवन से लेकर चिंतक व शिक्षाविद् के आयामों में नामों की बड़ी भूमिका रही है। उन्हें पत्रकारिता ने मकरंद नाम दिया तो सामाजिक कार्यों ने महामना बना दिया। पं. मदन मोहन मालवीय जी की पदवियों की बहुत रोचक कहानी है। उनके नाम में ‘म’ का भी विशेष महत्व था। मालवीय जी शिक्षाविद व कानूनविद होने के साथ ही एक महान लेखक व कवि भी थे। उनका जब लेखन काल था उस समय देश अंग्रेजों के चंगुल में पूरी तरह आ चुका था। 1857 के बाद देश में कंपनी शासन स्थापित हो गया था। इस नाते कोई भी सरकार विरोधी बातें स्वतंत्र रूप से नहीं लिख सकता था। लिखने की आदत से बाध्य मालवीय जी अपनी बात को सरकार तक पहुंचाने का बौद्धिक प्रयास करते रहते। उनका संबंध इलाहाबाद के भारतेंदुयुगीन लेखक व संपादक पं. बालकृष्ण भट्ट से भी था। मालवीय जी को बालकृष्ण भट्ट ने अपने मासिक पत्र ‘हिंदी प्रदीप’ में छद्म नाम से लिखने का आमंत्रण दिया। उनके प्रस्ताव को मालवीय जी ने स्वीकार किया और वह ‘मकरंद’ नाम से ‘हिंदी प्रदीप’ में लेख व कविताएं लिखने लगे। इस पत्र में मालवीय जी की पहली रचना सन 1883 में प्रकाशित हुई थी। इस समय देश में ,रेग्यूलेटिंग प्रेस एक्ट, पारित हो गया था जिसके तहत भारतीय भाषाओं में छपने वाले पत्र-पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाया जाता था। इन सब से अप्रभावित मालवीय जी सन 1887 तक मकरंद नाम से ही लेख लिखते रहे। इसके बाद वह हिंदोस्थान के संपादक बने। मालवीय जी ने जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की, तो यहां देश के मान्य विभूतियाँ जुटने लगे। इसी कड़ी में यहां महात्मा गांधी व विश्वगुरु रवींद्रनाथ टैगोर भी आते थे। मालवीय जी की मेधा और परिश्रम से वह प्रभावित थे। दोनों विभूतियों ने मालवीय जी को तीस के दशक में महामना की संज्ञा दे डाली। इसके बाद वह महामना मालवीय जी के नाम से विख्यात हुए। पुराणों में महामना मात्र भगवान कृष्ण के पिता वसुदेव व कर्ण को कहा गया। मालवीय जी इतिहास के तीसरे महामना बने। भारतीय दर्शन के अनुसार जो चार ‘म’कार दुर्गुणों से बचता है वही महामना बनता है। मालवीय जी के पहले नाम ‘म’हामना, ‘म’दन, ‘मो’हन, ‘मा’लवीय चार ‘म’ का अद्भुत संगम है। चार ‘म’-मद, मांस, मोह, माया से विरत रहने वाला ही महामना मदन मोहन मालवीय बनता है। 
नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक व्यापक विकल्प का सार्थक संकल्प 
-युगदर्पण मीडिया समूह YDMS- तिलक संपादक
इतिहास को सही दृष्टी से परखें। राष्ट्र का गौरव जगाएं, भूलें सुधारें।
आइये, आप ओर हम मिलकर इस दिशा में आगे बढेंगे, देश बड़ेगा । तिलक YDMS